डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की किताब Annihilation of Caste के रिफरेंस में यह कहा जाता है कि जाति मिटाने का सबसे बड़ा उपाय है अंतर्जातीय विवाह करना. यह सुनने में बहुत अच्छा उपाय लगता है लेकिन प्रैक्टिकल में यह उतना प्रभावी नहीं है. क्योंकि जाति कोई लीगल स्ट्रक्चर नहीं है बल्कि यह एक स्टेट ऑफ माइंड है. डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी दूसरी शादी एक ब्राह्मण महिला से की थी लेकिन उसके कुछ वर्षों के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया. क्या उनके जीते जी उनके साथ जाति भेद मिट पाया?
तब से लेकर आज तक भारत में बहुत से लोगों ने अंतर्जातीय विवाह किये हैं. 2011 सेन्सस के मुताबिक भारत में कुल शादियों का 5.8% अंतर्जातीय विवाह हुए हैं. क्या उन जोड़ियों के लिए जाति भेद मिट पाया? बहुत से लोगों को तो इस विवाह के चलते जान गंवानी पड़ी. बहुत से लोगों को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया. बहुत लोग तो विवाह के करीब पहुंचकर मुकर गये क्योंकि इतना रिस्क लेना नहीं चाहते थे.
ऐसा इसलिए है कि हिंदू धर्म में और इसके प्रभाव में आने की वजह से भारत के मुसलमान, क्रिश्चियन या सिख और ईसाई धर्मों में भी विवाह जाति की श्रेष्ठता को बनाये रखने का एक टूल है. हमारे समाज में तो विवाह सात जन्मों का बंधन माना जाता है. इसलिए सजातीय विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है ताकि कथित नस्लीय शुद्धता बची रहे.
फिर वो लोग कौन थे जिन्होंने अंतर्जातीय विवाह किये और सुखी हैं?
वह सामाजिक और आर्थिक रूप से सक्षम लोग थे. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो लगभग बराबर की जातियों में यह शादियां हो जाती हैं. क्योंकि अंतर्जातीय विवाह तभी सफल है जब वर और वधू दोनों ही मजबूत हैं. उनके पास सोशल कैपिटल है और उनके समाज पर शहर का प्रभाव है. अगर दोनों गांव से आते हैं, तो उनके लिए बहुत ही मुश्किल है, लगभग असंभव सा टास्क है ये. क्योंकि गांवों में जाति व्यवस्था अपने मूल रूप में विद्यमान है. वहां पर बराबर की जातियों में भी यह विवाह होना असंभव है.
क्योंकि अंतर्जातीय विवाह होने का मतलब ही है कि प्रेम विवाह हो रहा है. और भारतीय समाज में सामान्यतया यह स्वीकार्य नहीं है. आज भी भारत में ज्यादातर शादियां अरेंज्ड मैरिज के रूप में ही होती हैं. प्रेम विवाह होते ही जाति, धन संपत्ति, दहेज इत्यादि का मामला परिवार के कंट्रोल से निकल जाता है और यह लोगों को स्वीकार नहीं होता. गांवों में तो गांव को ही स्वीकार नहीं होता. अगर परिवार राजी हो भी जाए तो गांव पूरे परिवार का बहिष्कार कर देता है.
क्योंकि हमारे यहां विवाह का सामान्य उद्देश्य ही है वंश को आगे बढ़ाना यानी अपनी जाति की शुद्धता को बचाए रखना. तब ऐसे में अंतर्जातीय विवाह कैसे होंगे? इसके लिए तो पहले विवाह के सिस्टम को बदलना होगा. अगर ज्यादा प्रेम विवाह होंगे तो शायद अंतर्जातीय विवाह ज्यादा होंगे.
यहां पर एक समस्या है. अगर लड़का ऊंची जाति का हुआ और लड़की निचली जाति की, तो फिर शादी हो सकती है. लेकिन अगर लड़की ऊंची जाति की हुई और लड़का नीची जाति का, फिर यह शादी बहुत मुश्किल है.
यह कदम पूरा होगा तो अगला कदम कल्चर का आएगा. अगर दो जातियों के लड़का और लड़की तैयार हो गये और परिवार का मानना सामान्य हो गया तो फिर कल्चर को लेकर लड़ाई होगी. क्योंकि जातिगत कल्चर को लेकर लोगों के मन में बहुत पूर्वाग्रह है. पूर्वाग्रह तो क्षेत्र, भाषा, रंग इत्यादि को लेकर भी है लेकिन वो चीजें बातों तक सीमित रह सकती हैं और लोग एडजस्ट कर सकते हैं. लेकिन जाति तो सीधा सोशल लैडर में ऊपर-नीचे का मसला है, इसमें लोगों को ‘अपमान का घूंट’ पीना पड़ेगा, लोग ऐसा ही समझते हैं.
अंतर्जातीय विवाह करने और विशेषकर जातिगत गैप को भरने के लिए लोगों को इन्सेन्टिव चाहिए. सरकारी योजनाओं में यह इन्सेन्टिव पैसे के रूप में है. अलग-अलग स्कीमों में लगभग ढाई लाख से लेकर पांच लाख रुपये तक केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से मिलता है. अगर कोई अंतर्जातीय विवाह करे तो. लेकिन क्या यह लोगों के बाकी ‘नुकसान’ की भरपाई करता है?
हां, यह भरपाई तब होती है जब वर वधू में से कोई एक पावरफुल पोस्ट पर है या बहुत ज्यादा पैसे कमा रहा है. अगर जाति के सिस्टम को देखें तो यह लॉजिकल कन्क्लूजन है. क्योंकि जाति है ही सोशल स्टेटस बनाये रखने के लिए. तो अगर जाति अलग हो रही है तो पोस्ट और पैसे से लोग इसकी भरपाई कर लेंगे. यहां पर आरक्षण की अहमियत समझ आती है. आरक्षण की वजह से एक रास्ता निकलता तो है, चाहे कम ही लोगों के लिए क्यों ना हो.
इस मामले का दूसरा पहलू यह है कि क्या जाति मिटाना संभव है? अगर लोग अंतर्जातीय विवाह करने लगे तो कितनी शादियां होंगी तब जाति मिटेगी? क्या जाति मिट पाएगी?
ऐसा संभव नहीं लगता. क्योंकि शादियां होंगी तो भी तो कपल की जाति बरकरार रहेगी. उनके बच्चों की जाति बरकरार रहेगी. जिस कपल ने अंतर्जातीय विवाह किया है, उसकी भी कोई गारंटी नहीं कि बाकी जातियों के साथ वह जातिगत व्यवहार रखेंगे या नहीं. क्योंकि जाति तो सोशल सिस्टम में स्टेटस देती है, तो उनके ऊपर-नीचे जो जातियां होंगी, उनसे तुलना तो हो ही सकती है.
और अगर कोई विवाह ही ना करे तो क्या जाति मिटेगी? यह ज्यादा लॉजिकल है. विवाह नहीं होंगे और कम बच्चे पैदा होंगे तो फिर लोगों को अपने आप जरूरत पड़ेगी शादियों की. फिर अंतर्जातीय विवाह होने की संभावनायें बढ़ जाएंगी. क्योंकि तब समाज में स्वीकार्यता आ जाएगी. जब आपके पास ऑप्शन अवेलेबल हैं तो आपके पास जाति को लेकर तर्क हैं. लेकिन जब ऑप्शन नहीं होंगे तब आप मान लेंगे कि जाति कुछ नहीं होती है. वहां पर मानसिक बैरियर टूट सकता है.
हालांकि यह हाइपोथेटिकल है, पर इससे यह समझ में तो आता है कि मानसिक बैरियर तोड़ना ज्यादा जरूरी है. और यह सिर्फ शादी से नहीं टूटेगा. क्योंकि शादी कास्ट कॉन्शसनेस खत्म नहीं करती. कम से कम समाज की नजर में.
मानसिक बैरियर तब टूटेगा जब एक पूरी पीढ़ी प्रेम और विवाह के मामले में अपने परिवार और समाज से आजाद हो जाएगी. जब कानून प्रेम और विवाह को लेकर सरल हो जाएगा. जब प्रेम और विवाह को जीवन में एक आवश्यक लेकिन सामान्य घटना की तरह लिया जाएगा. क्योंकि सोशल कॉन्शसनेस के बदलने की शुरुआत कोर्ट के फैसलों और सरल कानूनों से ही होगी. अभी तो कानून एक तरीके से परिवार और समाज के ही पक्ष में हैं.
यह समझने की बात है कि जाति कभी खत्म नहीं होगी. कोई व्यक्ति जिस समुदाय, जिस कल्चर, जिस मेमोरी से आ रहा है, वह खत्म कैसे होगा? कोई अपनी पहचान क्यों खत्म करना चाहेगा? वह किसी ना किसी रूप में विद्यमान रहेगा ही. इससे ज्यादा जरूरी है कि हम जाति को स्वीकार करें. जो जिस जाति का है, वो है. उसे उसी रूप में स्वीकार करना ज्यादा प्रभावी होगा. जितनी ज्यादा स्वीकार्यता बढ़ेगी, जाति मन से हटने लगेगी, जो कि महत्वपूर्ण बदलाव है.
क्योंकि ‘अब मुझे अंतर्जातीय विवाह करना है’- ऐसा कभी नहीं हो सकता. आप यह सोचकर विवाह करेंगे तो वह बहुत मुश्किल भी हो सकता है. क्योंकि विवाह तो बिल्कुल एक व्यक्ति की निजी चॉइस है कि वो किस व्यक्ति के साथ जीवन गुजारना चाहता है. इसमें अगर उसे फ्रीडम मिले तो फिर धीरे-धीरे लोग जाति को इग्नोर करना शुरू करेंगे और व्यक्ति पर ध्यान देंगे.
इसका एक उपाय यह भी है कि विवाह और तलाक को सामान्य बनाया जाए. हमारे समाज में विवाह और तलाक दोनों ही युगांतकारी घटनाएं समझी जाती हैं. विशेषकर अरेंज्ड मैरिज में तो विवाह और तलाक दोनों ही बहुत जटिल प्रोसेस हैं. इसकी जटिलता की वजह से भी लोग अपनी जाति समुदाय में विवाह करना पसंद करते हैं.
अगर यह प्रोसेस सिंपल हो जाए और आसानी से होने लगे तब लोग जीवन में अपनी मर्जी से शादियां कर सकेंगे. यह जितना फ्लुइड होगा, हमारे कन्जर्वेटिव नोशन उतने ज्यादा टूटते जाएंगे. फिर जाति मुद्दा ही नहीं रहेगी. बल्कि हम जीवन के अन्य इन्सेन्टिव जैसे कि सुखी जीवन, तरक्की, खुशियां, प्यार इत्यादि पर फोकस कर पाएंगे.
कहने का मतलब यही है कि अंतर्जातीय विवाह तभी बढ़ेंगे जब हम विवाह और तलाक के बारे में साधारण सोच रखेंगे. इसे एक युग की शुरुआत और एक युग के अंत की तरह समझने के बजाय जीवन की एक सामान्य घटना के तौर पर लेंगे. तब यह भी होगा कि परिवार पेट काटकर बीस साल में बीस लाख रूपये इकट्ठा करने से बचेंगे अर्थात् दहेज की समस्या का निराकरण भी होगा. उन पैसों को घर में लगाने से प्रगति होगी, लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा और सारी चीजें बदलेंगी. तो जरूरत है कि समाज को पहले विवाह और तलाक के बारे में जागरुक किया जाए. वरना सामाजिक लड़ाई अलग ही मोर्चे पर होती रहेगी जहां लड़ाई है ही नहीं.
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